मौन का अर्थ है वाणी की पूर्ण शान्ति। शान्ति में वह शक्ति है जो आत्मा को परमात्मा से जोडने में सार्थक सिद्ध होती है। मौन का अर्थ केवल चुप रहना नहीं है। मौन एक गहरी साधना है जिसके माध्यम से मनुष्य अपने भीतर की परतों को हटाकर अपने वास्तविक स्व रूप का परिचय प्राप्त करता है। मौन अपने भीतर के सौन्दर्य और गहराई को निहारने की एक अनूठी प्रक्रिया है।
वाणी ही एक ऐसा माध्यम है जिससे मनुष्य अपने आप को संसार से योग करके रखता है। जितना ही वह संसार में लिप्त होता है उतना ही वह स्वयं से दूर हटने लगता है। ज्यों ही हम वाणी को विराम देते है,अहिस्ता -अहिस्ता अपने ही समीप पहुँचने लगते हैं और अपनी पहचान प्राप्त करते हैं।मौन में वह शक्ति है जो प्राणों की ऊर्जा के अपव्यय का समापन करती है।मनुष्य अपनी प्रचण्ड ऊर्जा को अनर्गल बोलकर शब्दों के माध्यम से ह्रास कराता है। इसी ऊर्जा को मौन धारण करके एकत्रित किया जा सकता है।
नब्बे प्रतिशत मुसीबतें संसार से कम हो जायें,यदि लोग थोडा कम बोलें। लेकिन होता यह है कि मनुष अपने भीतर बैठे हर मनोविकार को वाणी के द्वारा बाहर प्रवाहित करता हैऔर तदनुरूप अपने परिवेश का सृजन कर लेता है।
जो विषम परिस्थिति जिह्वा उत्पन्न कर सकती है,वैसा तलवार के माध्यम से भी होना कठिन है। जिह्वा द्वारा दिया गया घाव कभी नहीं भरता।
आध्यत्मिक जीवन में जिसने भी ऊँचाइयों को छुआ है,उसने मौन का सहारा अवश्य लिया है। महावीर स्वामी ने बारह वर्ष तक मौन रखा और गौतम बुद्ध ने छ:वर्ष तक,जिसके पश्चात उनकी वाणी दिव्य हो गई।
हमारे मन में हर पल विचारों का मेला लगा रहता है। हर क्षण एक नये विचार का उदय होता है। ऐसी स्थिति में मौन का पूरा लाभ नहीं लिया जा सकता । बाहर के साथ-साथ अन्दर से मौन रहना कहीं अधिक आवश्यक है।
इसलिये संसार के कुतूहल से जब मन अत्यधिक विचलित हो जाये ,तो प्रयास करना चाहिए कि लोगों के भीड से दूर प्रकृति के बीच में जाकर बैठे । हर समय प्रकृति एक नया सन्देश देती है। उसके कण कण में एक दिव्य संगीत की धुन सुनाई देती है। जितना ही हम भीतर से शान्त होते जाते है,उतना ही हम प्रकृति के हर शब्द को अपने भीतर अनुभव करते हैँ। भ्रमरों के गुंजार में हमें अनन्त की ध्वनि सुनाई देने लगती है। डालों पर बैठे पक्षियों के चहचहाने में हमें राग दीपक या भैरवी के स्वरों का आभास होता है।प्रकृति को यदि समझना है तो अपने भीतर के सुनहरे मौन को जाग्रत करना आवश्यक है।
मौन वास्तव में वह संजीवनी शक्ति है जिससे व्यक्ति के प्राणों की ऊर्जा का पुन:विकास एवं उत्थान होता है।नित्यप्रति तीन या चार घंटे का मौन रखना अत्यन्त लाभदायक है।
मौन के निरन्तर अभ्यास से वाणी पवित्र होने लगती है और उसमें सत्यता जाग्रत होती है।ऐसा व्यक्ति वाणी से जो भी बोलता है,वह सच होने लगता है। उसके व्यक्तित्व में गंभीरता आने लगती है और मन एकाग्रता की ओर वढता है।
मौन जब पूर्ण रूप से सिद्ध हो जाये तो मन का लय हो जाता है जैसे कोई विचार है ही नहीं है। मन आत्मा में विलीन हो जाता है। क्या आपने शान्त सागर को ध्यान से देखा है?उसमें कभी कोई लहरे नहीं उठती । वह एक रस में बहता चला जाता है। मौन में लहरों की भांति उठने वाले विचार विलीन हो जाते हैं। व्यक्ति को अहसास होता है कि जो'मै' था वह केवल जड की अनुभूति थी। अब में एक चेतना का सागर हूँ। परिपूर्ण मौन शान्ति के जल में मन की आहूति है।
मौन शान्ति का सन्देश है। यह स्वयं को ईश्वर से जुडने का सबसे सरल उपाय है। इसलिए जहाँ भी आप हों जो भी आप कार्य करतें हों,प्रयास कीजिये कि अपने व्यस्त दिनचर्या में से कुछ क्षण निकालकर संकल्पबद्ध होकर मौन साधना में उतरकर परम शान्ति का अनुभव करें। यह एक श्रेष्ठ तप है जो हमारे ऋषि-मुनियों की अमूल्य धरोहर है।
No comments:
Post a Comment