आंतरजालावरून साभार
जब रामकृष्ण को उनके अंतिम गुरु तोतापुरी का मिलना हुआ, तो रामकृष्ण करीब -करीब सिद्ध- अवस्था में थे। करीब-करीब में कहता हूं ख्याति हो गई थी कि रामकृष्ण पहुंच गये। रामकृष्ण को पता था कि अभी थोड़ी -सी कमी है, बस एक सीढ़ी और; मगर दूसरों को क्या पता! दूसरे तो देखते थे कि इतनी ऊंचाई इतनी ऊंचाई, आकाश में पहुंच गये हैं! उनको क्या पता कि एक सीडी और कम रह गई! तोतापुरी से जब रामकृष्ण का मिलना हुआ तो रामकृष्ण ने निवेदन किया कि बस एक सीडी और रह गई है, इसे मैं कैसे पार करूं?
तोतापुरी ने कहा : कठिन नहीं, ऐसे कठिन भी है। कठिन नहीं, क्योंकि इतनी सीढ़ियां पार कर आये तो अब एक पार करने में क्या अड़चन होगी? जैसे और सीढ़िया पार की हैं ऐसे यह भी सीढ़ी पार करो। सूत्र वही है। जैसे और सब चाहें छोड़ दीं, अब परमात्मा की चाह भी छोड़ दो।
और ऐसे कठिन भी है, क्योंकि और सब चाहें तो क्षुद्र थीं। धन की चाह छोड़ने में, पद की चाह छोड़ने में, प्रतिष्ठा की चाह छोड़ने में एक तरह का आनंद ही आया था, आह्लाद हुआ था-कि हल्के हुए, कि व्यर्थ का बोझ कटा, कूड़ा-करकट फेंका! मगर परमात्मा की चाह छोड़ना! जिसने इसे बचाने के लिए सब छोड़, अब उससे कहना इसे भी छोड़ दो! तो कठिन भी है। मगर चेष्टा करो तो हो सकता है।
रामकृष्ण ने कहा : मेरी सहायता करें। मुझ अकेले से न हो सकेगा। मैं तो आंख बंद करता हूं कि काली सामने खड़ी हो जाती है। मैं तो भूल ही जाता हूं। मैं तो रसलीन हो जाता हूं। मुझे तो द्वैत बना ही रहता है- भक्त का और भगवान का। अद्वैत घटता ही नहीं।
तोतापुरी ने कहा : मैं एक काम करूंगा। तू आंख बंद करके बैठ और जैसे ही मैं देखूंगा कि खड़ी हो गई प्रतिमा और द्वैत उठने लगा और काली की प्रतिमा, तेरी आराध्य की प्रतिमा सामने आ गयी, मैं आवाज दूंगा-रामकृष्ण उठा तलवार, कर दे दो टुकड़े! तो फिर देर पर करना, उठा लेना तलवार और कर लेना दो टुकड़े।
रामकृष्ण जैसे अदभुत व्यक्ति ने भी पूछा : लेकिन तलवार कहां से लाऊंगा? तोतापुरी ने कहा : यह खूब रही! और यह काली मैया कहां से लाया है? यह भी कल्पना है तेरी। सतत कल्पना करने से यह प्रतिमा खड़ी हो गई है। जहां से यह लाया वहीं से एक तलवार भी ले आ।
मगर रामकृष्ण ने कहा : मां को और तलवार से काट दूं! इससे तो खुद ही पर जाना पसंद करूंगा।
तोतापुरी ने कहा : फिर तेरी मर्जी। मगर यह करना ही होगा। अगर तू एक सीढ़ी और पार करना चाहता है तो यह काली को छोड़ ही देना होगा। अब यही बाधा है। यही तेरी आराध्य, यही तेरी पूजा और प्रार्थना, यही तेरी भक्तिअर्चना, यही बाधा है। तू कोशिश कर।
बार -बार रामकृष्ण आंख बंद करें, कोशिश करें, मगर कोशिश न हो पूरी। आंख बंद करें कि आंसुओ की धार, कि आनंद -मग्न हो डोलने लगें। और तोतापुरी कहें : फिर वही! अब तू यह किसलिए डोल रहा है? क्योंकि अद्वैत – भाव में डोलना वगैरह नहीं होता। और आंसू वगैरह की क्या जरूरत है? अद्वैत- भाव में तो सब थिर हो जाता है।
रामकृष्ण कहें : मगर मैं भूल ही जाता हूं आपकी याद नहीं रहती। आपने जो कहा वह भी भूल जाता है। जैसे ही आंख बंद करता हूं और मां के दर्शन होते हैं -अहा, बस फिर मुझे न आपकी याद रहती है न आपके उपदेश की याद रहती है।
तो तोतापुरी ने कहा कि मैं अब आखिरी उपाय करूंगा, क्योंकि कल सुबह मुझे जाना है। वे गये और रास्ते से एक काच का टुकड़ा उठा लाये। पड़ा होगा किसी बोतल का टूटा हुआ। और उन्होंने रामकृष्ण को कहा कि तू आंख बंद कर और जैसे ही मैं देखूंगा कि डोलने लगा, आंख में आंसू आने लगे, जैसे ही मुझे लगेगा कि अब प्रतिमा खड़ी हुई, मैं तेरे माथे को इस काच के टुकड़े से काट दूंगा। और जब मैं तेरे माथे को काटू? उस वक्त तू भी एक वार हिम्मत करके उठा कर तलवार दो टुकड़े कर देना। इधर मैं तेरा माथा काटू उधर तू मैया को काट देना।
बात तो बड़ी कठिन थी। बड़ी मुश्किल थी। अपनी मां को साधारणत: मारना बहुत मुश्किल है। और फिर काली मां को मारना तो और भी बहुत मुश्किल है। और यही तो जिंदगी भर की साधना थी रामकृष्ण की। और इस साधना में खूब फूल खिले थे और खूब रस बहा था, खूब आनंद उमगा था, खूब गीत जन्मे थे। इस सबको पोंछ देना एकबारगी! मगर तोतापुरी कल सुबह चला जाये… और तोतापुरी जैसा आदमी मिलना फिर मुश्किल है।
तो हिम्मत की, तोतापुरी ने काट दिया माथा। लहूलुहान, खून की धार बह गई रामकृष्ण के माथे से। और जब तोतापुरी ने माथा काटा तब उन्हें भी आया आई भीतर। उठाई उन्होंने एक तलवार कल्पना की और दो टुकड़े कर दिये काली के। छ: घंटे के लिए थिर हो गये। रोआ भी न हिला। छ: घंटे के लिये पत्थर हो गये! और जब आंख खोली तो आज एक अपूर्व दशा थी-जों आनंद के भी पार है, जो सारी अभिव्यक्तियों के पार है! रामकृष्ण ने जो वचन, पहला वचन बोला छ: घंटे के बाद वह यही था : आज अंतिम बाधा गिर गई। बहुत -बहुत धन्यवाद दिया तोतापुरी को कि तुम्हारी करुणा अपार है। आज अंतिम बाधा गिर कई! आज आखिरी सीढ़ी पार हो गई। चाह भी छोड़नी होती है। वही कठिनाई है।
अगर चाहते हो कि परमात्मा आये तो चाह को भी जाने दो। यह मांग भी मत उठाओ। यह शर्त भी मत लगाओ। ज्यों -ज्यों तुम्हें बनाया अपना, त्यों -त्यों तुम अनजान बन गए!
ऐसा जीवन का गणित है। यह चाह तो ‘मैं’ कह ही भाव है। यह चाह तो ममता ही है-परमात्मा मेरा हो जाये, मेरी मुट्ठी में हो जाये। यह अहंकार की अंतिम सूक्ष्म प्रक्रिया है। सावधान! सावचेत!
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