Tuesday, November 3, 2015

श्री ज्ञानेश्वरी नित्यपाठ . स्वामी स्वरूपानंद





नमोजी आद्या |                                     
वेदप्रतिपाद्या |
जय जय स्वसंवेद्या |
आत्मरुपा ||1||

देवा तूंची गणेश |
सकलमतिप्रकाश |
म्हणे निवृत्तिदास |
अवधारिजो ||||

आता अभिनववाग्विलासिनी |
जे चातुर्यार्थकलाकामिनी |
ते श्रीशारदा विश्वमोहिनी |
नमिली मियां ||||

मज हृदयी सद्गुरू |
जेणें तारिलो हा संसारपूरू |
म्हणौनि विशेषे अत्यादरू |
विवेकावरी ||||

या उपाधिमाजी गुप्त |
चैतन्य असे सर्वगत |
ते तत्त्वज्ञ संत |
स्वीकारिती ||||

उपजे तें नाशे |
नाशलें पुनरपि दिसे |
हें घटिकायंत्र तैसें |
परिभ्रमे गा ||||

जैसें मार्गे चि चालतां |
अपावो न पवे सर्वथा |
कां दीपाधारें वर्ततां |
नाडळिजॆं ||||

तयापरी पार्था |
स्वधर्मे राहाटतां |
सकाळकामपूर्णता |
सहजें होंय ||||

सुखी संतोषा न यावे |
दुखी विषादा न भजावे |
आणि लाभालाभ न धरावे |

मनामाजी ||९||

आपणयां उचिता |
स्वधर्मे राहाटतां |
जें पावे तें निवांता |
साहोनि जावें ||१०|
 
आम्ही हि विचारिलें |
तंव ऐसे चि हे मना आलें |
जे न सांडिजे तुवां आपुलें |
विहित कर्म ||११|

परि कर्मफळी आस न करावी |
आणि कुकर्मी संगति न व्हावी |
हे सत्क्रियाचि आचरावी |
हेतुवि ||१२||


तूं योगयुक्त होऊनि |
फळाचा संग टाकुनि |
मग अर्जुना चित्त देऊनी |
करी कर्मे ||१३||


परि आदरिले कर्म दैवें |

जरी समाप्तीते पावे |

तरी विशेषे तेथ तोषावें |

हें ही नको ||१४||

कीं निमित्ते कोणे एके |

तें सिद्धी न वचतां ठाके |

तरी तेथीचेनि अपरितोखें |

क्षोभावे ना ||१५||


देखे जेतुलाले कर्म निपजे |
तेतुलें आदिपुरुषी अर्पिजे | 

तरी परिपूर्ण सहजे | 

जाहलें जाण ||१६||


म्हणौनी जें जें उचित |
आणि अवसरेकरूनि प्राप्त |
ते कर्म हेतुरहित |
आचरे तूं ||१७||

देखे अनुक्रमाधारे |

स्वधर्म जो आचरे |

तो मोक्ष तेणें व्यापारे |

निश्चित पावे ||१८||

स्वधर्म जो बापा |
तो नित्ययज्ञ जाण पां |
म्हणौनी वर्ततां तेथ पापा |
संचारू नाहीं ||१९||

हा निजधर्म जैं सांडे |
आणि कुकर्मी रति घडे |
तैं चि बंध पडे |
सांसारिक ||२०||


म्हणोनि स्वधर्मानुष्ठान |

ते अखंड यज्ञ याजन |

जो करी तया बंधन |

कही चि डे ||२१||

अगा जया जें विहित |

तें ईश्वराचे मनोगत |

म्हणौनि केलिया निभ्रांत |

सापडे चि तो ||२२||


तें विहित कर्म पांडवा |

आपुला न्य वोलावा |

आणि हे चि परम सेवा |

मज सर्वात्मकाची ||२३||

तया सर्वात्मका ईश्वरा |
स्वकर्मकुसुमांची वीरा |

पूजा केली होय अपारा |

तोषालागी ||२४||

ते क्रियाजात आघवे |
जे जैसे निपजेल स्वभावे |
ते भावना करोनि करावे |
माझिया मोहरा ||२५||

आणि हे कर्म मी कर्ता |
कां आचरेन या अर्था |
ऐसा अभिमान झणे चित्ता |
रिघो देसी ||२६||


तुवां शरीरपरां नोहावें |

कामनाजात सांडावे  |

मग अवसरोचित भोगावे |

भोग सकाळ ||२७||

तू मानसा नियम करीं |
निश्चळु होय अंतरी |
मग कर्मेंद्रिये व्यापारु |
वर्ततु सुखे ||२८||

परिस पां सव्यसाची  |

मूर्ति लाहोनि देहाची |

खंती करिती कर्माची |

ते गावंढे ||२९||

देख पां जनकादिक |
कर्मजात अशेख |
 सांडीता मोक्षसुख |
पावते जाहले ||३०||

देखे प्राप्तार्थ जाहले|
जे निष्कामता पावले |
यां ही कर्तव्य असे उरले |
लोकांलागी ||३१||

मार्गी अंधासरिसा |
पुढे देखणाही चाले जैसा |
अज्ञाना प्रगटावा धर्म तैसा |
आचरोनी ||३२||


एथ वडील जें जें करिती |
तया नाम धर्म ठेविती |

तें चि येर अनुष्ठिती |
सामान्य सकळ ||३३||  

हें ऐसें असे स्वभावें |
म्हणौनि कर्म न संडावे |
विशेषे आचरावे  |
लागे संतीं  ||३४||

दीपाचेनि प्रकाशे |
गृहीचे व्यापार जैसे |
देही कर्मजात तैसें |
योगयुक्ता ||३५||

तो कर्मे करी सकळें |
परी कर्मबंधा नाकळे |
जैसें न सिंपे जळी जळें |
पद्मपत्र ||३६||

तया हि देह एक कीर आथी |

लौकिकी सखदु:खी तयाते म्हणती |

परी आम्हाते ऐसी प्रतीति |

परब्रह्म ची हां ||३७||



देह तरी वरिचिलीकडे | 

आपुलिया परी हिंडे |

परी बैसका न मोडे |

मानसीची ||३८||



अर्जुना समत्व चित्ताचे |

ते चि सार जाण योगाचे |

जेथ मन आणि बुद्धीचे |

ऐक्य आथी ||३९|| 


देखे अखंडित प्रसन्नता |

आथी जेथ चित्ता |

तेथ रिणे नाही समस्ता |

संसारदुःखां||४०||



जैसा अमृताचा निर्झरु |

प्रसवे जयाचा जठरु |

तया क्षुधेतृषेचा अडदरू |

कही चि नाही ||४१||



तैसे हृदय प्रसन्न होये |

तरी दु:ख कैचे के आहे |

तेथ आपैसी बुद्धी राहे |

परमात्मरूपी ||४२||



जैसा निर्वातीचा दीपु |

सर्वथा नेणे कंपु |

तैसा स्थिरबुद्धी स्वस्वरूपु |

योगयुक्त ||४३||



जया पुरुषांचा ठायी |

कर्माचा तरी खेदु नाही |

आणि फलापेक्षा कही |

संचरेना ||४४||

आणि हें कर्म मी करीन | 

अथवा आदरिले सिद्धी नेईन |

येणे संकल्पेही जयाचे मन |

विटाळे ना ||४५||

ज्ञानाग्नीचेनि मुखे |

जेणे जाळिली कर्मे अशेखे |

तो परब्रह्मचि मनुष्यवेखें |

वोळख तूं ||४६||



ते ज्ञान पैं गा बरवें |

जरी मनी आथी जाणावें |

तरी संतां यां भजावें |

सर्वस्वेंसीं ||४७||



जे ज्ञानाचा कुरुठा |

तेथ सेवा हा दारवंटा |

तो स्वाधीन करी सुभटा |

वोळगोनि ||४८||

तरी तनुमनुजीवें |

चरणासी लागावें |

आणि अगर्वता करावें |

दास्य सकळ || ४९||

मग अपेक्षित जें आपुलें |
तेही सांगती पुसिलें |
जेणें अंत:करण बोधले |
संकल्पा न ये ||५०||

ते  वेळी आपणपेयां सहिते |

इये अशेषेही भूतें |

माझ्या स्वरूपीं अखंडितें |

देखसी तूं ||५१||

ऐसें ज्ञानप्रकाशे पाहेल |
तैं मोहांधकारू जाईल |
जैं गुरुकृपा होईल |
पार्था गा ||५२||

जरी कल्मषाचा आगरु |

तूं भ्रांतीचा सागरू |

व्योमोहाचा डोंगरु |

होऊन अससी ||५३||



तरी ज्ञानशक्तीचेनि पाडें |

हें आघवें चि गां थोकडें |

ऐसे सामर्थ्य असे चोखडे |

ज्ञानी इये ||५४||



मोटके गुरुमुखे उदैजत दिसे |

हृदयी स्वयंभची असे |

प्रत्यक्ष फावो लागे तैसे |

आपैसायाचि ||५५||



सांगे अग्नीस्तव धूम होये |

तिये धूमीं काय अग्नी आहे |

तैसा विकारु हा मी नोहें |

जरी विकारला असे ||५६||



देह तंव पांचाचे जालें |

हें कर्माचे गुणी  गुंथले |

वंतसे चाकीं सूदलें |

जन्ममृत्यूच्या ||५७||



हे काळानळाच्या तोंडी |

घातली लोणियांची उंडी |

माशी पांख पाखडीं |

तंव हे सरे ||५८||



या देहाची हे दशा |

आणि आत्मा तो एथ ऐसा |

पै नित्य सिद्ध आपैसा  |

अनादिपणे ||५९||



सकळ ना निष्कळु |

अक्रीय ना क्रियाशीळु |

कृश ना स्थूळु |

निर्गुणपणें ||६०||लू



आनंद ना निरानंदु |

एक ना विविधु |

मुक्त ना बद्धु |

आत्मपणें ||६१||



तें परमतत्व पार्था |

होती ते सर्वथा |

जे आत्मानात्मव्यवस्था |

राजहंस ||६२||

ऐसेनि जे निजज्ञानी |

खेळत सुखें त्रिभुवनी |

जगद्रूपा मनीं |

सांठऊनि मातें ||६३||



हे विश्वचि माझे घर |

ऐसी मति जयाची स्थिर |

किंबहुना चराचर  |

आपण जाहला ||६४||

मग याहीवरी पार्था |                                     

माझिया भजनी आस्था |

तरी तयातें मी माथां |

मुकुट करीं ||६५||



तो मी वैकुंठी नसें |

वेळु एक भानुबिंबी न दिसें |

वारी योगीयांचीही मानसें|

उमरडोनि जाय ||६६||



परी तयापाशी पांडवा |

मी हारपला गिंवसावा | 

जेथ नामघोषु बरवा |

करिती माझा ||६७||



कृष्ण विष्णु हरि गोविंद  |
या नावाचे निखळ प्रबंध |

माजी आत्मचर्चा विष |

उदंड गाती ||६८|

यांचिये वाचे माझे आलाप |

दृष्टी भोगी माझे चि रूप |

याचे मन संकल्प |

माझा चि वाहे ||६९||

माझिया कीर्तीविण |

यांचे रिते नाही श्रवण |

यां सर्वांगी भूषण |

माझी सेवा ||७०||

ते पापयोनी ही होतु का |

ते श्रुताधीतही न होतु का |

परी मजसी तुकिता तुका |

तुटी नाही  ||७१||

ते चि भलतेणे भावें |

मन मत आंतु येते होआवे |

आलें तरी आघवें |

मागील वावो ||७२||

जैसे तव चि वहाळ वोहळ |

जंव न पवती गंगाजळ |

मग होऊनी ठाकती केवळ |

गंगारूप ||७३||

तैसे क्षत्री वैश्य स्त्रिया  |

कां शूद्र अंत्याजादि इया |

जाती तव चि वेगळालिया |

जव न पवती मातें ||७४||


यालागी पापयोनीही अर्जुना |

कां वैश्य शूद्र अंगना |

माते भजतां सदना |

माझिया येती ||७५||

पैं भक्ति एकी मी जाणें |

तेथ सानें थोर  म्हणे |

आम्ही भावाचे पाहुणे | 

भलतेया ||७६||

येर पत्र पुष्प फळ |

हे भजावया मिस केवळ | 

वाचूनि आमुचा लाग निष्क | 

भक्तितत्त्व ||७७||

मग भूते हे भाष विसरला |

जे दिठी मी चि आहे सूदला | 

म्हणौनि निर्वैर झाला | 

सर्वत्र भजे ||७८||

हे समस्तही श्रीवासुदेव |

ऐसा प्रतीतिरसाचा वोतला भाव |

म्हणौनि भक्तांमाजी राव |

आणि ज्ञानिया तो चि ||७९ ||

तू मन हें मीचि करी |

माझिया भजनी प्रेम धरी |

सर्वत्र नमस्कारी |

मज एकाते ||८०||

माझेनि अनुसंधाने देख |

संकल्पु जाळणे निःशेख |

द्याजी चोख |

याचि नाव||८१||

ऐसा मियां आथिला होसी |
तेथ माझियाचि स्वरुपा पावसी |
हें अंतःकरणीचे तुजपासी |
बोलिजत सें ||८२||

तू मन बुद्धी साचेसी | 

जरी माझिया स्वरूपी अर्पिसी | 

तरी माते चि गा पावसी |

हे माझी भाक ||८३||

अथवा हे चित | 

मनबुद्धीसहित  |

माझ्या हाती अचुंबित |

न शकसी देवो ||८४||

तरी गा ऐसें करी | 

यया आठा प्राहारामाझारी | 

मोटके निमिषभरी | 

देतु जाय ||८५||

मग जें जें का निमिख |

देखेल माझें सुख |

तेतुलें आरोचक | 

विषयीं घेईल ||८६||

पुनवेहूनि जैसे |

शिबिंब दिसेंदिसें |

हारपत अंवसें | 

नाही चि होये  ||८७||

तैसें भोगाआंतूनि  निगता | 

चित्त मजमाजी रिगता  | 

हळू हळू पंडुसुता | 

मीचि होईल ||८८||

म्हणौनी अभ्यासासी काहीं | 

सर्वथा दुष्कर नाही |

यालागीं माझ्या ठायीं | 

अभ्यासें मीळ ||८९||  



कां जे यया मनाचें एक निकें |

जें देखिले गोडीचिया ठाया सोके | 

म्हणौनी अनुभवसुखचि कवतिकें

दावी जाइजे ||९०||

बळियें इंद्रियें येती मना | 

मन ऐकवटे पवना | 

पवन सहजे गगना |

मिळोचि लागे ||९१||

सें नेणो काय आपैसें |
तयातेचि कीजे अभ्यासें |
समाधि घर पुसे |
मानसाचे ||९२||

ऐसा जो कामक्रोधलोभां | 

झाडी करुनि ठाके उभा | 

तो चि येवढिया लाभा | 

गोसावी होय ||९३||

पाहे पां  तत्सत् ऐसे |

हें बोलणें तेथ नेतसे |

जेथुनि का हें प्रकाशे |

दृश्यजात ||९४||


सुवर्णमणि सोनया |

ये कल्लोळु जैसा पाणिया |

तैसा मज धनंजया |

शरण ये तू || ९५||


म्हणौनी मी होऊनी मातें |
सेवणें आहे आयितें |
तें करीं हाता येतें |
ज्ञानें येणें ||९६||



यालागी सुमनु आणि शुद्धमती | 

जो अनिंदकु अनन्यगति | 

पैं गा गौप्यहि परी तया प्रती |

चावळिजे सुखे ||९७||


तरी प्रस्तुत आता गुणीं इहीं |

तू वाचून आणिक नाही | 

म्हणौनी गुज तरी तुझ्या ठायी |

लपवू नये || ९८||

ते हे मंत्ररहस्य गीता | 

मेळवी जो माझिया भक्ता | 

अनन्यजीवना माता |

बाळका जैसी ||९९||      



तैसी भक्तां गीतेसी |

भेटी करी जो आदरेसी |

तो देहापाठीं मजसी | 

येकचि होय ||१००||

सें सर्व रूपरूपसें |
सर्व दृष्टीडोळसें |
सर्वदेशनिवासें |
बोलिले श्रीकृष्णे ||१०१|| 


हे शब्देविण संवादिजे |
इंद्रियां नेणतां भोगिजे |

बोलाआदि झोंबिजे | 

प्रमेयासी ||१०२|

जें अपेक्षिजे विरक्ती |
सदा अनुभविजे संती |
सोहंभावे पारंगतीं|
रमिजे जेथ ||१०३ ||

हें गीतानाम विख्यात |
सर्व वाङमयाचे मथित|
आत्मा जेणे हस्तगत |
रत्न होय || १०४ ||

वत्साचेनि वोरसें |
दुभते होय घरोद्देशें |
जालें पांडवाचेनि मिषें |
जगदुद्धरण ||१०५||


आता विश्वात्मके देवें | 

येणे वाग्यज्ञे तोषवें   | 

तोषोनि मज द्यावें |

पसायदान ||१०६||

जे खळांची व्यंकटी सांडो|
तयां सत्कर्मी रति वाढो  |
भूतां परस्परे पडो |
मैत्र जीवांचे ||१०७||

तेथ म्हणे श्रीविश्वेश्वरावो | 

हा होईल दानपसावो | 

येणें रें ज्ञानदेवो | 

सुखिया झाला || १०८ ||

भरोनि  सद्भावाची अंजुळी |
मियां वोवियाफुलें मोकळीं |
अर्पिली अंघ्रियुगली |
विश्वरुपाच्या ||१०९||


इति श्री स्वामी स्वरूपानंद संपादितं भावार्तदीपिका सार स्तोत्रं संपूर्णम|

हरये नमः | हरये नमः | हरये नमः श्रीकृष्णार्पणमस्तू |


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