||●|| मनीषा पञ्चकम् ||●||
!! चाण्डाल वेशधारी भगवान् विश्वनाथ और श्रीश्रीमदाद्यशंकराचार्य संवाद - एक गूढ़ आध्यात्मिक रहस्य !!
एक बार यतिवर शंकर अपने शिष्यों के साथ मध्याह्नकालीन कृत्य करने गंगा जी
की ओर जा रहे थे. ग्रीष्म ऋतु की प्रचण्डता अपनी चरमसीमा पर थी. सभी
प्राणी गर्मी से व्याकुल थे. सभी प्राणी भीषण ताप से बचने के लिए
सुरक्षित स्थानों में चले गये थे. मछलियों ने भी जल के भीतर शरण ले रखी
थी. ऐसे समय में शंकर ने एक चाण्डाल देखा, जिसने अपने चार भयावह कुत्तों
से मार्ग घेर रखा था.
की ओर जा रहे थे. ग्रीष्म ऋतु की प्रचण्डता अपनी चरमसीमा पर थी. सभी
प्राणी गर्मी से व्याकुल थे. सभी प्राणी भीषण ताप से बचने के लिए
सुरक्षित स्थानों में चले गये थे. मछलियों ने भी जल के भीतर शरण ले रखी
थी. ऐसे समय में शंकर ने एक चाण्डाल देखा, जिसने अपने चार भयावह कुत्तों
से मार्ग घेर रखा था.
उसे देखते ही शंकर ने उच्च स्वर से कहा, "दूर हटो,
दूर हटो." उनकी बात सुनकर चाण्डाल अपने स्थान से तनिक भी टस से मस न हुआ,
बल्कि शंकर से कहने लगा, "हे महात्मन्, आप उपनिषद् के सैकड़ों वाक्यों
द्वारा ब्रह्म और जीव की अभिन्नता प्रतिपादन करते हैं. एक और तो आप कहते
हैं कि एक ही अद्वितीय ब्रह्मा है, वह ब्रह्मा, सत्, चित्, आनंद,
अद्वितीय, दोषरहित, असंग, सत्यबोध, अखण्ड, सुखरूप, आकाश के समान व्यापक
और निर्लेप है, और दूसरी ओर उस प्रत्यगभिन्न ब्रह्मा में आप भेद की
कल्पना करते हैं. यह महान् आश्चर्य की बात है. हे विद्वान्, आपने यह कहा
`दूर हटो.' तो इससे आप देह से हटाना चाहते हैं अथवा देही से?
दूर हटो." उनकी बात सुनकर चाण्डाल अपने स्थान से तनिक भी टस से मस न हुआ,
बल्कि शंकर से कहने लगा, "हे महात्मन्, आप उपनिषद् के सैकड़ों वाक्यों
द्वारा ब्रह्म और जीव की अभिन्नता प्रतिपादन करते हैं. एक और तो आप कहते
हैं कि एक ही अद्वितीय ब्रह्मा है, वह ब्रह्मा, सत्, चित्, आनंद,
अद्वितीय, दोषरहित, असंग, सत्यबोध, अखण्ड, सुखरूप, आकाश के समान व्यापक
और निर्लेप है, और दूसरी ओर उस प्रत्यगभिन्न ब्रह्मा में आप भेद की
कल्पना करते हैं. यह महान् आश्चर्य की बात है. हे विद्वान्, आपने यह कहा
`दूर हटो.' तो इससे आप देह से हटाना चाहते हैं अथवा देही से?
यह शरीर
अन्नमय कोश के अन्तर्गत माना गया है, क्योंकि यह अन्न से परिपुष्ट होता
है. अन्न से ही सभी के शरीर पुष्ट होते हैं. ऐसी दशा में एक अन्नमय शरीर
दूसरे अन्नमय शरीर से किस प्रकार भिन्न है?
अन्नमय कोश के अन्तर्गत माना गया है, क्योंकि यह अन्न से परिपुष्ट होता
है. अन्न से ही सभी के शरीर पुष्ट होते हैं. ऐसी दशा में एक अन्नमय शरीर
दूसरे अन्नमय शरीर से किस प्रकार भिन्न है?
इस शरीर के अन्तर्गत स्थित
जीवात्मा हमारे समस्त क्रिया-कलापों का द्रष्टा एक है, भिन्न नहीं. ऐसी
स्थिति में एक साक्षी चेतन दूसरे साक्षी चेतन से अभिन्न है. साक्षी में
नानात्व नहीं है, वह एक और अद्वितीय है. क्या आप ऐसे अद्वैत-~वादियों के
लिए प्रत्यागत्मा के विषय में भेद समझना शोभनीय है? गंगाजल तथा मदिरा में
प्रतिबिम्बित सूर्य में क्या किसी प्रकार भेद है? सूर्य के प्रतिबिम्ब
भिन्न हो सकते हैं, पर बिम्बरूप सूर्य तो एक ही है. ठीक इसी भाँति
प्रत्येक शरीर में स्थित साक्षी और द्रष्टा आत्मा एक ही है. हे मुनिवर,
इन दोनों में आप किसे हटाने की इच्छा करते हैं? आप शास्त्रज्ञ संन्यासी
हैं, देवताओं और विद्वानों द्वारा पूजनीय और वंदनीय हैं. फिर भी आपके साथ
यह झमेला लगा हुआ है कि `मैं पवित्र ब्राह्मण हूँ और तुम चाण्डाल हो, अत:
दूर हटो'. यह आपका मिथ्या आग्रह कैसा?
जीवात्मा हमारे समस्त क्रिया-कलापों का द्रष्टा एक है, भिन्न नहीं. ऐसी
स्थिति में एक साक्षी चेतन दूसरे साक्षी चेतन से अभिन्न है. साक्षी में
नानात्व नहीं है, वह एक और अद्वितीय है. क्या आप ऐसे अद्वैत-~वादियों के
लिए प्रत्यागत्मा के विषय में भेद समझना शोभनीय है? गंगाजल तथा मदिरा में
प्रतिबिम्बित सूर्य में क्या किसी प्रकार भेद है? सूर्य के प्रतिबिम्ब
भिन्न हो सकते हैं, पर बिम्बरूप सूर्य तो एक ही है. ठीक इसी भाँति
प्रत्येक शरीर में स्थित साक्षी और द्रष्टा आत्मा एक ही है. हे मुनिवर,
इन दोनों में आप किसे हटाने की इच्छा करते हैं? आप शास्त्रज्ञ संन्यासी
हैं, देवताओं और विद्वानों द्वारा पूजनीय और वंदनीय हैं. फिर भी आपके साथ
यह झमेला लगा हुआ है कि `मैं पवित्र ब्राह्मण हूँ और तुम चाण्डाल हो, अत:
दूर हटो'. यह आपका मिथ्या आग्रह कैसा?
आप समस्त शरीरों में स्थित एवं
अशरीरी पुराण, पुरुष की अवहेलना कर रहे हैं. आप सबको अद्वैत आत्मतत्त्व
उपदेश करते हैं. पर ऐसे विज्ञ पुरुष भी अनादि अज्ञान की महिमा से वंचित
नहीं हैं. तभी तो अचिन्त्य, अव्यक्त, अन्नन्त, आद्य, उपाधिशून्य अपने
चिरूप आत्मा को भुलाकर हाथी के कान के समान प्रत्यक्ष सिद्ध
क्षणभंगुर, चंचल शरीर की अहंभावना कर रह हैं.
अशरीरी पुराण, पुरुष की अवहेलना कर रहे हैं. आप सबको अद्वैत आत्मतत्त्व
उपदेश करते हैं. पर ऐसे विज्ञ पुरुष भी अनादि अज्ञान की महिमा से वंचित
नहीं हैं. तभी तो अचिन्त्य, अव्यक्त, अन्नन्त, आद्य, उपाधिशून्य अपने
चिरूप आत्मा को भुलाकर हाथी के कान के समान प्रत्यक्ष सिद्ध
क्षणभंगुर, चंचल शरीर की अहंभावना कर रह हैं.
क्या आप ऐसे अद्वैतज्ञानी
के लिये इस प्रकार की भेद-~भावना शोभनीय है? जिस प्रकार अज्ञान के कारण
रस्सी में सर्प का भ्रम हो जाता है, उसी प्रकार मिथ्या ज्ञान से चिरूप
ब्रह्मा में नाम-रूपात्मक समस्त प्रचंच सत्य के समान दिखलाई पड़ते हैं ।
के लिये इस प्रकार की भेद-~भावना शोभनीय है? जिस प्रकार अज्ञान के कारण
रस्सी में सर्प का भ्रम हो जाता है, उसी प्रकार मिथ्या ज्ञान से चिरूप
ब्रह्मा में नाम-रूपात्मक समस्त प्रचंच सत्य के समान दिखलाई पड़ते हैं ।
मोक्षदायिनी ब्रह्मविद्या को प्राप्त करने पर भी, आपके ह्रदय में इस
प्रकार की तुच्छ भावना क्यों उत्पन्न हो रही कि `मैं ब्राह्मण हूँ, तुम
चाण्डाल हो.' महान् आश्चर्य की बात है कि उस मायावी परमात्मा के विशाल
इन्द्रजाल में आप महान् पुरुष भी फँस रहे हैं. "
प्रकार की तुच्छ भावना क्यों उत्पन्न हो रही कि `मैं ब्राह्मण हूँ, तुम
चाण्डाल हो.' महान् आश्चर्य की बात है कि उस मायावी परमात्मा के विशाल
इन्द्रजाल में आप महान् पुरुष भी फँस रहे हैं. "
ऐसा कह कर चाण्डाल चुप हो गया. अब आचार्य शंकर संदेह में पड़ गये कि यह
चाण्डाल है अथवा चाण्डाल के वेष में कोई अन्य महान् पुरुष? अत: उदारमना,
सत्यनिष्ठ शंकर ने उससे कहा, "हे प्राणियों में श्रेष्ठ, आपके वचन
युक्तियुक्त और सारगर्भित हैं. आपका कथन सर्वथा सत्य है. आप आत्मज्ञानी
हैं. उपनिषद् सभी जानते हैं, इन्द्रियों को जीतने वाले व्यक्ति इसका मनन
करते हैं तथा अपने अन्त:करण को आत्मा में नित्य रमण कराते हैं. इस प्रकार
श्रवण, मनन, निदिध्यासन होने पर भी, वे अपनी बुद्धि भेदरहित नहीं कर
पाते. जिस दृढ़बुद्धि पुरुष की दृष्टि सम्पूर्ण विश्व आत्मरूप से
प्रकाशित हो रहा है, वह चाहे ब्राह्मण हो अथवा चाण्डाल हो, वह वन्दनीय
है, यह मेरी दृढ़ निष्ठा है. जो चैतन्य विष्णु, शिव आदि देवताओं में
स्फुरित हो रहा है, वही चैतन्य कीड़े-मकोड़े क्षुद्र जन्तुओं तक में
स्फुरित हैं. जिसको ऐसी बुद्धि और ऐसी निष्ठा है कि `वह चैतन्य मैं हूँ",
चाण्डाल है अथवा चाण्डाल के वेष में कोई अन्य महान् पुरुष? अत: उदारमना,
सत्यनिष्ठ शंकर ने उससे कहा, "हे प्राणियों में श्रेष्ठ, आपके वचन
युक्तियुक्त और सारगर्भित हैं. आपका कथन सर्वथा सत्य है. आप आत्मज्ञानी
हैं. उपनिषद् सभी जानते हैं, इन्द्रियों को जीतने वाले व्यक्ति इसका मनन
करते हैं तथा अपने अन्त:करण को आत्मा में नित्य रमण कराते हैं. इस प्रकार
श्रवण, मनन, निदिध्यासन होने पर भी, वे अपनी बुद्धि भेदरहित नहीं कर
पाते. जिस दृढ़बुद्धि पुरुष की दृष्टि सम्पूर्ण विश्व आत्मरूप से
प्रकाशित हो रहा है, वह चाहे ब्राह्मण हो अथवा चाण्डाल हो, वह वन्दनीय
है, यह मेरी दृढ़ निष्ठा है. जो चैतन्य विष्णु, शिव आदि देवताओं में
स्फुरित हो रहा है, वही चैतन्य कीड़े-मकोड़े क्षुद्र जन्तुओं तक में
स्फुरित हैं. जिसको ऐसी बुद्धि और ऐसी निष्ठा है कि `वह चैतन्य मैं हूँ",
यह दृश्य जगत् नहीं, वह चाण्डाल भले ही हो, पर वह मेरा गुरु है. संसार के
विविध विषयों के अनुभव करते समय, जहाँ-जहांॅ ज्ञान उत्पन्न होता है,
वहाँ-वहांॅ समस्त उपाधियों से रहित मैं ही विद्यमा न हूँ. मुझसे भिन्न कोई
भी पदार्थ नहीं है, ऐसी जिसकी बुद्धि है, वह पुरुष मेरा गुरु है.
आचार्य शंकर ने जिन श्लोकों से चाण्डाल वेशधारी विश्वनाथ महोदय शंकर की
स्तुति की, वे `मनीषापंचक' नाम से प्रसिद्ध हैं. इनकी संख्या पाँच है और
प्रत्येक श्लोक के अन्त में `मनीषा' शब्द आता है, इसलिये इन्हें `मनीषा'
पंचक' कहा गया है ।
विविध विषयों के अनुभव करते समय, जहाँ-जहांॅ ज्ञान उत्पन्न होता है,
वहाँ-वहांॅ समस्त उपाधियों से रहित मैं ही विद्यमा न हूँ. मुझसे भिन्न कोई
भी पदार्थ नहीं है, ऐसी जिसकी बुद्धि है, वह पुरुष मेरा गुरु है.
आचार्य शंकर ने जिन श्लोकों से चाण्डाल वेशधारी विश्वनाथ महोदय शंकर की
स्तुति की, वे `मनीषापंचक' नाम से प्रसिद्ध हैं. इनकी संख्या पाँच है और
प्रत्येक श्लोक के अन्त में `मनीषा' शब्द आता है, इसलिये इन्हें `मनीषा'
पंचक' कहा गया है ।
||●|| मनीषा पंचकम् ||●||
उदारमना... सत्यनिष्ठ आचार्य शंकर कहते हैं...
जग्रत्स्वप्न्सुषुप्तिषु स्फुत्तारा या संविदुज्ज्रुम्भ्ते
या ब्रह्मिदिपिपीलिकान्त्त्नुश
ु प्रोता जगत्साक्षिणी ।
सैवाहं न च दुश्यवास्त्विती दृढप्रज्ञापि यस्यास्ति चेत
चन्दलोअस्तु स तु द्विजोअस्तु गुरुरित्येषा मनीषा मम ॥ १ ॥
जग्रत्स्वप्न्सुषुप्तिषु स्फुत्तारा या संविदुज्ज्रुम्भ्ते
या ब्रह्मिदिपिपीलिकान्त्त्नुश
ु प्रोता जगत्साक्षिणी ।
सैवाहं न च दुश्यवास्त्विती दृढप्रज्ञापि यस्यास्ति चेत
चन्दलोअस्तु स तु द्विजोअस्तु गुरुरित्येषा मनीषा मम ॥ १ ॥
"हे प्राणियो में श्रेष्ठ ! आपके वचन युक्तियुक्त और सारगर्भित हैं
| आपका कथन सर्वथा सत्य है | आप आत्मज्ञानी हैं | उपनिषद
सभी जानते हैं, इन्द्रियो को जीतने वाले इसका मनन करते हैं और अपने
अंत:करण में आत्मा को नत्य रमण कराते हैं | जिस दृढबुद्धि पुरुष
कि दृष्टि में सम्पूर्ण विश्व आत्मरूप से प्रकाशित हो रहा है... वह
चाहे ब्राह्मण हो अथवा चांडाल हो, वह वन्दनीय है... यह मेरी दृढ
निष्ठा है | जो चैतन्य विष्णु, शिव आदि देवताओं में स्फुरित
हो रहा है... वही चैतन्य कीड़े-मकोड़े क्षुद्र जन्तुओ तक में
स्फुरित है | जिसकी ऐसी बुद्धि और निष्ठा है कि " मैं चैतन्य हू" ,
यह दृश्य जगत नहीं, वह चांडाल भले ही हो, पर वह मेरा गुरु है"... ||१||
| आपका कथन सर्वथा सत्य है | आप आत्मज्ञानी हैं | उपनिषद
सभी जानते हैं, इन्द्रियो को जीतने वाले इसका मनन करते हैं और अपने
अंत:करण में आत्मा को नत्य रमण कराते हैं | जिस दृढबुद्धि पुरुष
कि दृष्टि में सम्पूर्ण विश्व आत्मरूप से प्रकाशित हो रहा है... वह
चाहे ब्राह्मण हो अथवा चांडाल हो, वह वन्दनीय है... यह मेरी दृढ
निष्ठा है | जो चैतन्य विष्णु, शिव आदि देवताओं में स्फुरित
हो रहा है... वही चैतन्य कीड़े-मकोड़े क्षुद्र जन्तुओ तक में
स्फुरित है | जिसकी ऐसी बुद्धि और निष्ठा है कि " मैं चैतन्य हू" ,
यह दृश्य जगत नहीं, वह चांडाल भले ही हो, पर वह मेरा गुरु है"... ||१||
ब्रह्मैवाह्मिदम जगच्च सकलं चिन्मत्रिविस्तारितं
सर्वं चैताद्विध्य्या त्रिगुनायोशेषं मया कल्पितम ।
इथं यस्य दृढा मतिः सुखतरे नित्ये परे निर्मले
चन्दलोअस्तु स तु द्विजोअस्तु गुरुरित्येषा मनीषा मम ॥ २ ॥
सर्वं चैताद्विध्य्या त्रिगुनायोशेषं मया कल्पितम ।
इथं यस्य दृढा मतिः सुखतरे नित्ये परे निर्मले
चन्दलोअस्तु स तु द्विजोअस्तु गुरुरित्येषा मनीषा मम ॥ २ ॥
"मैं ब्रह्म ही हू... चेतन मात्र से व्याप्त यह समस्त जगत भी ब्रह्मरूप
ही है | समस्त दृष्यजाल मेरे द्वारा ही त्रिगुणमय अविद्या से
कल्पित है | सत्य, निर्मल पर सुख रूप में जिसकी ऐसी दृढ बुद्धि है...
वह चांडाल हो अथवा द्विज हो, वह मेरा गुरु है"... ||२||
शास्वन्न्स्वरमेवा विश्वमखिलं निश्चित्य वाचा गुरोः
नित्यं ब्रह्म निरंतरं विमृशता निव्याज्शान्तात्मना ।
भूतं भावि च दुष्क्रुतं प्रदहता संविन्मये पावके
प्ररब्धाय समर्पितं स्वव्पुरित्येशा मनीषा मम || ३ ||
ही है | समस्त दृष्यजाल मेरे द्वारा ही त्रिगुणमय अविद्या से
कल्पित है | सत्य, निर्मल पर सुख रूप में जिसकी ऐसी दृढ बुद्धि है...
वह चांडाल हो अथवा द्विज हो, वह मेरा गुरु है"... ||२||
शास्वन्न्स्वरमेवा विश्वमखिलं निश्चित्य वाचा गुरोः
नित्यं ब्रह्म निरंतरं विमृशता निव्याज्शान्तात्मना ।
भूतं भावि च दुष्क्रुतं प्रदहता संविन्मये पावके
प्ररब्धाय समर्पितं स्वव्पुरित्येशा मनीषा मम || ३ ||
" जिसने अपने गुरु के वचनों से यह निश्चित कर लिया है
कि परिवर्तनशील यह जगत अनित्य है, जो अपने मन को वश में करके शांत
आत्मना है, जो निरंतर ब्रह्म चिंतन में स्थित है, जिसने परमात्म
रुपी अग्नि में अपनी सभी भूत और भविष्य कि रहती वासनाओं को दहन
कर लिया है और जिसने अपने प्रारब्ध का क्षय करके देह को समर्पित
कर दिया है... वह चांडाल हो अथवा द्विज हो, वह मेरा गुरु है"... ||३||
कि परिवर्तनशील यह जगत अनित्य है, जो अपने मन को वश में करके शांत
आत्मना है, जो निरंतर ब्रह्म चिंतन में स्थित है, जिसने परमात्म
रुपी अग्नि में अपनी सभी भूत और भविष्य कि रहती वासनाओं को दहन
कर लिया है और जिसने अपने प्रारब्ध का क्षय करके देह को समर्पित
कर दिया है... वह चांडाल हो अथवा द्विज हो, वह मेरा गुरु है"... ||३||
या तियार्न्ग्नार्देव्ताभिराह्
मित्यांतः स्फुटा गृह्यते
यभ्दासा हृदयाक्ष्देहविश्या भांति स्वतोअचेतनाः ।
तां भास्यैः पिहितार्क्मंदाल्निभां स्फूर्ति सदा भावयन
योगी निवृत्मंसो हि गुरुरित्येषा मनीषा मम ॥ ४ ॥
मित्यांतः स्फुटा गृह्यते
यभ्दासा हृदयाक्ष्देहविश्या भांति स्वतोअचेतनाः ।
तां भास्यैः पिहितार्क्मंदाल्निभां स्फूर्ति सदा भावयन
योगी निवृत्मंसो हि गुरुरित्येषा मनीषा मम ॥ ४ ॥
सर्प आदि तिर्यक, मनुष्य देवादि द्वारा "अहम्" मैं ऐसा गृहीत
होता है | उसी के प्रकाश से स्वत: जड़, हृदय, देह और विषय भाषित होते
हैं | मेघ से आवृत सूर्य मंडल के समान विषयों से आच्छादित उस
ज्योतिरूप आत्मा कि सदा भावना करने वाला आनंदनिमग्न
योगी मेरा गुरु है... ऐसी मेरी मनीषा है"... ||४||
होता है | उसी के प्रकाश से स्वत: जड़, हृदय, देह और विषय भाषित होते
हैं | मेघ से आवृत सूर्य मंडल के समान विषयों से आच्छादित उस
ज्योतिरूप आत्मा कि सदा भावना करने वाला आनंदनिमग्न
योगी मेरा गुरु है... ऐसी मेरी मनीषा है"... ||४||
यात्सौख्याम्बुधिलेश्लेशत इमे श्कद्यो निव्रुता
याच्चित्ते नितरां प्रशान्त्कालने लब्ध्वा मुनिनिर्व्रुतः ।
यस्मिन्नित्यासुखाम्बुधाऊ गलित्धिब्रह्मैव न ब्रह्मविद
यः कश्सित्सा सुरेंद्रव्न्दित्प्दो नूनं मनीषा मम ॥ ५ ॥
याच्चित्ते नितरां प्रशान्त्कालने लब्ध्वा मुनिनिर्व्रुतः ।
यस्मिन्नित्यासुखाम्बुधाऊ गलित्धिब्रह्मैव न ब्रह्मविद
यः कश्सित्सा सुरेंद्रव्न्दित्प्दो नूनं मनीषा मम ॥ ५ ॥
"प्रशांत काल में एक योगी का अंत:करण जिस परमानंद
कि अनुभूति करता है... जिसकी एक बूँद मात्र इन्द्र आदि को तृप्त और
संतुष्ट कर देती है, जिसने अपनी बुद्धि को ऐसा परमानंद सागर में
विलीन कर लिया है... वह मात्र ब्रह्मविद ही नहीं... स्वयं ब्रह्म है...
वह अति दुर्लभ... जिसके चरणों के वन्दना देवराज भी करते हैं... वह
मेरा गुरु है... ऐसी मेरी मनीषा है"... ||५||
कि अनुभूति करता है... जिसकी एक बूँद मात्र इन्द्र आदि को तृप्त और
संतुष्ट कर देती है, जिसने अपनी बुद्धि को ऐसा परमानंद सागर में
विलीन कर लिया है... वह मात्र ब्रह्मविद ही नहीं... स्वयं ब्रह्म है...
वह अति दुर्लभ... जिसके चरणों के वन्दना देवराज भी करते हैं... वह
मेरा गुरु है... ऐसी मेरी मनीषा है"... ||५||
आत्मा में आचार्य शंकर कि ऐसी अपूर्व निष्ठा देखकर भगवान्
आशुतोष शिव उनपर अत्यंत प्रसन्न हुए | उन्होंने अपने चांडाल वेश
को छोड़ दिया | भगवान् चंद्रमौलेश्वर अस्थ्मुर्ती में
चारो वेदों को धारण किये हुए प्रकट हुए... भगवान् शिव के इस
अष्टमूर्ति रूप को देखकर आचार्य शंकर भय, भक्ति, विनय, धैर्य और
हर्ष के भाव से भर गए | उन्होंने भावपूर्ण शब्दों में भगवान् शिव
कि स्तुति करनी प्रारम्भ कि, " हे शम्भो! देह बुद्धि से मैं
आपका दास हू | हे त्रिलोचन ! जीव बुद्धि से मैं आपका अंश हू | शुद्ध
बुद्धि से आत्मविचार करने पर आप ही सब कुछ हैं | ऐसी अवस्था में
मैं आपसे रंच मात्र भी भिन्न नहीं हूँ
| हे सर्वात्मन !
सभी शास्त्रों के द्वारा यह निश्चित किया गया है, यही मेरा ज्ञान
है | अद्वैत्ज्ञान के प्रतिपादक शास्त्र धन्य है... परन्तु ऐसे
शास्त्रों से भी क्या, यदि गुरु-कृपा न हो | गुरु-कृपा से
भी क्या लाभ यदि शिष्य के अंत:करण में ज्ञान उत्पन्न न करे |
आशुतोष शिव उनपर अत्यंत प्रसन्न हुए | उन्होंने अपने चांडाल वेश
को छोड़ दिया | भगवान् चंद्रमौलेश्वर अस्थ्मुर्ती में
चारो वेदों को धारण किये हुए प्रकट हुए... भगवान् शिव के इस
अष्टमूर्ति रूप को देखकर आचार्य शंकर भय, भक्ति, विनय, धैर्य और
हर्ष के भाव से भर गए | उन्होंने भावपूर्ण शब्दों में भगवान् शिव
कि स्तुति करनी प्रारम्भ कि, " हे शम्भो! देह बुद्धि से मैं
आपका दास हू | हे त्रिलोचन ! जीव बुद्धि से मैं आपका अंश हू | शुद्ध
बुद्धि से आत्मविचार करने पर आप ही सब कुछ हैं | ऐसी अवस्था में
मैं आपसे रंच मात्र भी भिन्न नहीं हूँ
| हे सर्वात्मन !
सभी शास्त्रों के द्वारा यह निश्चित किया गया है, यही मेरा ज्ञान
है | अद्वैत्ज्ञान के प्रतिपादक शास्त्र धन्य है... परन्तु ऐसे
शास्त्रों से भी क्या, यदि गुरु-कृपा न हो | गुरु-कृपा से
भी क्या लाभ यदि शिष्य के अंत:करण में ज्ञान उत्पन्न न करे |
यदि उस ज्ञान से परम तत्त्व का बोध नहीं हुआ, तो ऐसा ज्ञान
भी शुन्यवत ही है | वह परम तत्त्व मुझसे भिन्न नहीं है | मैं ही परम
तत्त्व हू | इसी ज्ञान में आश्चर्यमय बुद्धि कि समाप्ति होती है |"
भी शुन्यवत ही है | वह परम तत्त्व मुझसे भिन्न नहीं है | मैं ही परम
तत्त्व हू | इसी ज्ञान में आश्चर्यमय बुद्धि कि समाप्ति होती है |"
ऐसा कहते कहते आचार्य शंकर भाव-विभोर हो गए... उन्होंने सजल
नेत्रों से भगवान् शिव को साष्टांग प्रणाम किया |
नेत्रों से भगवान् शिव को साष्टांग प्रणाम किया |
आचार्य शंकर के ज्ञान और भक्ति पर भगवान् शंकर अत्यंत प्रसन्न और
संतुष्ट हुए... उन्होंने शंकर से कहा, " वत्स... तुमने मेरे शिव तत्त्व
कि प्रत्यक्षानुभूति कर ली है... तुमने हमारी पदवी प्राप्त कर
ली है... मैंने तुम्हारे ब्रह्मज्ञान कि परीक्षा ले ली | हे तपोधन !
तुमने प्रज्ञा के परम उत्कर्ष को प्राप्त कर लिया है... हे श्रेष्ठ !
तुम और बादरायण व्यास मुझे समान रूप से प्रिय हैं... अत: तुम
भी व्यास के समान ही मेरे अनुग्रह के पात्र बनो... वेदव्यास ने
सभी वैदिक मंत्रो का विभाजन किया और ब्रह्मसूत्र कि रचना की |
तुम्हे ब्रह्मसूत्र पर नवीन भाष्य लिखना है... वह भाष्य श्रुतियो के
द्वारा पुष्ट हो और गंभीर तर्कों से युक्त हो...
तुम्हारा लिखा भाष्य अत्यधिक प्रतिष्ठित और गौरवपूर्ण होगा...
मोहरूपी अन्धकार को दूर करने के लिए सूर्य के समान
तेजस्वी शिष्यों को भिन्न-भिन्न प्रदेशो में वेदान्त धर्म
का पालन करने के लिए नियुक्त करो... और तत्पश्चात कृतकार्य होकर
मुझ ही में विलीन हो जाओ |"
संतुष्ट हुए... उन्होंने शंकर से कहा, " वत्स... तुमने मेरे शिव तत्त्व
कि प्रत्यक्षानुभूति कर ली है... तुमने हमारी पदवी प्राप्त कर
ली है... मैंने तुम्हारे ब्रह्मज्ञान कि परीक्षा ले ली | हे तपोधन !
तुमने प्रज्ञा के परम उत्कर्ष को प्राप्त कर लिया है... हे श्रेष्ठ !
तुम और बादरायण व्यास मुझे समान रूप से प्रिय हैं... अत: तुम
भी व्यास के समान ही मेरे अनुग्रह के पात्र बनो... वेदव्यास ने
सभी वैदिक मंत्रो का विभाजन किया और ब्रह्मसूत्र कि रचना की |
तुम्हे ब्रह्मसूत्र पर नवीन भाष्य लिखना है... वह भाष्य श्रुतियो के
द्वारा पुष्ट हो और गंभीर तर्कों से युक्त हो...
तुम्हारा लिखा भाष्य अत्यधिक प्रतिष्ठित और गौरवपूर्ण होगा...
मोहरूपी अन्धकार को दूर करने के लिए सूर्य के समान
तेजस्वी शिष्यों को भिन्न-भिन्न प्रदेशो में वेदान्त धर्म
का पालन करने के लिए नियुक्त करो... और तत्पश्चात कृतकार्य होकर
मुझ ही में विलीन हो जाओ |"
भगवान् विश्वनाथ ने आचार्य शंकर को इस प्रकार निर्देश दिया और
अपने अमोघ आशीष से उन्हें कृतकृत्य किया !!!
अपने अमोघ आशीष से उन्हें कृतकृत्य किया !!!
!!*!!ॐ नमः शिवाय !!*!!
भगवान् आदि जगद्गुरु शंकर के श्री चरणों में शत कोटि प्रणाम…
||●|| ॐ श्री जगद्गुरुभ्यो नमः ||●||
|| जय श्री राम ||
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